हे लफ्ज़ परेशां
सोच में डूबी हैं रोशनाई
लिखने को
कागज़ कलम कहाँ ,
दिल के जज्बात
बिखर रहे
समेटू उन्हें कैसे
वो अहसासों की
किताब कहाँ,
अश्क से
भीगी हैं पलके
लगी सावन की झड़ी
उसमे मेरे सपने
बह गये कहाँ,
थाम लो अब तो
हाथ मेरा
तन्हा जीवन
गुजरेगा कैसे
मैं हूँ यहाँ
तुम हो कहाँ |
जीतेन्द्र सिंह "नील"
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